मीडिया सेमिनार ने दिया आर्थिक हालात सुधारने का हौंसला
लुधियाना: 11 अगस्त 2017: (FIB मीडिया ब्यूरो)::
सेमिनार का विषय भी अजीब था। पत्रकारों पर आर्थिक दबाव। बस हाल ही गुज़री 9 अगस्त 2017 को हुआ था इसका आयोजन। विषय अछूता सा था पर फिर भी अजीब सा लगा।
मन में सवाल उठा-भला यह दबाव आजकल किस पर नहीं होता?
पूछने पर बात खुली कि आम तौर पर मीडिया कर्मियों ने खुद सहेड़ा होता है यह आर्थिक दबाव। मीडिया संस्थान इनके इस तरफ झुकाव का पूरा फायदा उठाते हैं और इनका शोषण करते हैं। दुनिया के भले की आकांक्षा को लेकर अपने भले को दांव पर लगा देते हैं ये पत्रकार तांकि दुनिया का कुछ संवर सके। वे खुद रातों को जाग कर दुसरों को सावधान करते हैं। समाज को जगाये रखने वाले बिन तनखाह के प्रहरी।
लेकिन अब बहुत हो गया। क़ुरबानी के नाम पर भावुक शोषण का यह सिलसिला लम्बे समय से जारी है।
बहुत बार बहुत से नामों तले इस तरह के मामले उठे, नारे भी लगे, संगठन भी बने, संघर्ष भी चले लेकिन प्रधानगी और दुसरे फायदों का सौदा तय होते ही भले की यह बात नारों तक सिमट कर रह जाती। हमारे पास सबूत और विवरण भी हैं। इसके बावजूद हम संकेतिक भाषा का इस्तेमाल ही उचित समझते हैं।
भावुकता की हद तक मीडिया से जुड़े इन पत्रकार साथियों के कंधों पर चढ़ कर इनके ही साथी बड़े बड़े पदों पर सत्ता सुख भोगने पहुंच जाते। कोई सांसद बन गया और कोई मंत्री और कोई किसी बड़े नेता का पीआरओ या प्रेस सचिव। बाकी के पत्रकार खिसियानी बिल्ली की तरह कोई नया नेता या नयी यूनियन या कोई नया संगठन बनाते या तलाशते रह जाते। दिल में गुस्सा उठता, दिमाग में तूफ़ान खड़े होते लेकिन इस सब से इनका अपना ही दिल जलता। इनका फायदा उठाने वाले इन्हें कोई झूठा सा नया सपना दिखा कर खिसक लेते। ये बेचारे संघर्ष की आग में तपते रह जाते।
फिर यह गर्मी भी ठंडी हो गयी। संघर्ष की बात अतीत का हिस्सा बन गयी। झगड़ा उठता भी तो किसी न किसी नाम से क्लब बना कर प्रधानगी तक सिमट कर रह जाता। सिद्धांतो, मांगों और मुद्दों की बात किसी गए गुज़रे ज़माने की बात बन गयी।
पत्रकारों के संघर्ष और दमखम की बात याद करने और कराने का प्रयास था यह सेमिनार। कम से कम दीप जगदीप की बातें सुन कर तो यही लगा। पुराने अनुभव के साथ अब नया जोश भी शामिल है।
बहुत बार बहुत से नामों तले इस तरह के मामले उठे, नारे भी लगे, संगठन भी बने, संघर्ष भी चले लेकिन प्रधानगी और दुसरे फायदों का सौदा तय होते ही भले की यह बात नारों तक सिमट कर रह जाती। हमारे पास सबूत और विवरण भी हैं। इसके बावजूद हम संकेतिक भाषा का इस्तेमाल ही उचित समझते हैं।
भावुकता की हद तक मीडिया से जुड़े इन पत्रकार साथियों के कंधों पर चढ़ कर इनके ही साथी बड़े बड़े पदों पर सत्ता सुख भोगने पहुंच जाते। कोई सांसद बन गया और कोई मंत्री और कोई किसी बड़े नेता का पीआरओ या प्रेस सचिव। बाकी के पत्रकार खिसियानी बिल्ली की तरह कोई नया नेता या नयी यूनियन या कोई नया संगठन बनाते या तलाशते रह जाते। दिल में गुस्सा उठता, दिमाग में तूफ़ान खड़े होते लेकिन इस सब से इनका अपना ही दिल जलता। इनका फायदा उठाने वाले इन्हें कोई झूठा सा नया सपना दिखा कर खिसक लेते। ये बेचारे संघर्ष की आग में तपते रह जाते।
फिर यह गर्मी भी ठंडी हो गयी। संघर्ष की बात अतीत का हिस्सा बन गयी। झगड़ा उठता भी तो किसी न किसी नाम से क्लब बना कर प्रधानगी तक सिमट कर रह जाता। सिद्धांतो, मांगों और मुद्दों की बात किसी गए गुज़रे ज़माने की बात बन गयी।
पत्रकारों के संघर्ष और दमखम की बात याद करने और कराने का प्रयास था यह सेमिनार। कम से कम दीप जगदीप की बातें सुन कर तो यही लगा। पुराने अनुभव के साथ अब नया जोश भी शामिल है।
इस सेमिनार के बाद लगा कि संख्या में कम ही सही पर कलम के सिपाही अब आर-पार की जंग के लिए तैयार हैं। फैसला कठिन था लेकिन करना पड़ा। इसके इलावा कोई चारा भी नहीं था शायद। इस मकसद के लिए 21 सदस्यों पर आधरित विशेष कार्य समिति बना दी गयी है। जो इस समस्या के हल पर भी ठोस काम करेगी।
थोड़ा पीछे पलट कर देखें तो तस्वीर और स्पष्ट हो सकेगी। उल्लेखनीय है कि खुद को "शुद्ध स्वदेशी" और "असली" समझने वाले मीडिया के ही कुछ लोगों ने अपने दुसरे भाईबंदों को "चाईना" कहना शुरू कर दिया था। पहले तो हमें बात ही समझ में नहीं आई लेकिन जब कुरेदा तो पता चला कि "चाईना" उन पत्रकारों को कहा जाता है जिनकी खबर उनके नाम से कहीं नज़र नहीं आती लेकिन वे हर जगह कवरेज के लिए मौजूद होते हैं। अब थोड़ी सी चर्चा "चाईना" कहे जाने वाले मीडिया कर्मियों की हकीकत पर भी की वे क्यों हर जगह होते हैं और उनकी खबर कहीं दिखती नहीं।
थोड़ा पीछे पलट कर देखें तो तस्वीर और स्पष्ट हो सकेगी। उल्लेखनीय है कि खुद को "शुद्ध स्वदेशी" और "असली" समझने वाले मीडिया के ही कुछ लोगों ने अपने दुसरे भाईबंदों को "चाईना" कहना शुरू कर दिया था। पहले तो हमें बात ही समझ में नहीं आई लेकिन जब कुरेदा तो पता चला कि "चाईना" उन पत्रकारों को कहा जाता है जिनकी खबर उनके नाम से कहीं नज़र नहीं आती लेकिन वे हर जगह कवरेज के लिए मौजूद होते हैं। अब थोड़ी सी चर्चा "चाईना" कहे जाने वाले मीडिया कर्मियों की हकीकत पर भी की वे क्यों हर जगह होते हैं और उनकी खबर कहीं दिखती नहीं।
वे मीडिया में आते हैं बड़े जोशी खरोश से लेकिन इस मकसद के लिए आवश्यकता होती है किसी न किसी अख़बार या चैनल की। जब यह नए पंछी वहां सम्पर्क करते हैं तो इनको नज़र आने लगता है कि इतना आसान भी नहीं है कोई मीडिया संस्थान ज्वाइन कर लेना। वहां स्कियोरिटी की रकम, ब्लैंक चैक और घर की रजिस्ट्री की मांग... समझ आने लगता है मीडिया कर्मी बनने का भाव। फिर इन्हें खुद को असली कहने वाले पत्रकार अपने अपने ग्रुप में शामिल करते हैं। काम ये लोग करते हैं और नाम इनके ग्रुप लीडर का होता है। स्थिति यहाँ तक क्यों पहुंची इसके लिए भी मीडिया कर्मी खुद ज़िम्मेदार हैं। बात लम्बी है इस लिए फिर कभी सही। फ़िलहाल समस्या की एक झलक मात्र तांकि अंदाज़ा हो सके कि शोषण करने वालों में खुद मीडिया कर्मियों के अपने साथी भी पीछे नहीं रहते।
चलो शोषण करने वाले तो शोषण करते ही हैं। दर्द उस समय और बढ़ता है जब अपने ही लोग काम का पैसा दिलवाने के लिए दिखाई देते संघर्षों के नाम पर विरोधी गुट के साथ मिले हुए नज़र आते हैं।
मीडिया संगठन के लिए पदाधिकारियों के चुनाव या सदस्यता की बात चले तो पूछते हैं--क्या आपको तनखाह मिलती है? स्पष्ट जवाब भी देते है कि कि अगर तनखाह नहीं मिलती तो हम आपको पत्रकार नहीं मानते। सब कुछ पता होने के बावजूद वे इन लोगों को कभी "चाईना" कहते हैं और कभी कुछ और। कोई नहीं कहता कि अगर आपको काम के बावजूद आपको कूछ नहीं मिलता तो हम देखते हैं कौन नहीं देता आपको आपके काम की मेहनत। कोई नहीं कहता कि देखते हैं कौन मारता है आपकी तनख्वाह। इन "चाईना" कहे जाने वाले पत्रकार लोगों का दर्द पहचाना है "द पीपुल्स मीडिया लिंक" ने। जन मीडिया मंच की ओर से आयोजित इस सेमिनार में इस विषय पर बारीकी से चर्चा हुई। आने वाले दिनों में शायद और भी बहुत कुछ ऐसा होगा जो मीडिया की मौजूदा हालात की तस्वीर में नए रंग भरेगा। क्या आप तैयार हैं?
मीडिया संगठन के लिए पदाधिकारियों के चुनाव या सदस्यता की बात चले तो पूछते हैं--क्या आपको तनखाह मिलती है? स्पष्ट जवाब भी देते है कि कि अगर तनखाह नहीं मिलती तो हम आपको पत्रकार नहीं मानते। सब कुछ पता होने के बावजूद वे इन लोगों को कभी "चाईना" कहते हैं और कभी कुछ और। कोई नहीं कहता कि अगर आपको काम के बावजूद आपको कूछ नहीं मिलता तो हम देखते हैं कौन नहीं देता आपको आपके काम की मेहनत। कोई नहीं कहता कि देखते हैं कौन मारता है आपकी तनख्वाह। इन "चाईना" कहे जाने वाले पत्रकार लोगों का दर्द पहचाना है "द पीपुल्स मीडिया लिंक" ने। जन मीडिया मंच की ओर से आयोजित इस सेमिनार में इस विषय पर बारीकी से चर्चा हुई। आने वाले दिनों में शायद और भी बहुत कुछ ऐसा होगा जो मीडिया की मौजूदा हालात की तस्वीर में नए रंग भरेगा। क्या आप तैयार हैं?
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